Sunday, June 29, 2014
‘મિચ્છમી દુક્કડમ’
માફીની આ મહેફિલમાં, કંઇ મસ્તી નથી હોતી
ક્ષમાની આ સાધના, કંઇ સસ્તી નથી હોતી
ખામવા અને ખમાવવામાં જબરજસ્તી નથી હોતી
આપો દીલ શત્રુને તો વેરની હસ્તી નથી હોતી
નથી ખબર કે કેટલો અમારા માટે આદર
છતા રહે ભીની અમારા વાત્સલ્યની ચાદર
ફરી વાર એક ‘મિચ્છમી દુક્કડમ’ કહી તમને
કરું ખાલી બસ અમારા સંવીત મન વાદળ
Thursday, May 22, 2014
દીકરી વ્હાલનો દરિયો
કે આજે કોઈના પણ માટે દરવાજા ખોલવા નહિ.
તે જ દિવસે પતિના માતાપિતા આવ્યા અને
દરવાજો ખટખટાવ્યો, પતિ-પત્ની દરવાજા પાછળ
ઉભા રહ્યા, પતિએ દરવાજો ખોલી નાખવા વિચાર્યું
પણ શર્તને લઇ ને તે ચુપ રહયો.
માતાપિતા ઉદાસ હૃદયે જતા રહ્યા!
થોડીવાર પછી પત્નીના માતાપિતા આવ્યા. આ વખતે
પણ દરવાજા પાછળ ઉભા રહેલ
બનેમાંથી પત્નીથી ના રેહવાયું અને આંખમાં આંસુ
સાથે દરવાજા ખોલી નાખ્યા !
પતિ કશું બોલ્યો નહિ !
થોડા વર્ષો વીટી ગયા...
આ પછી તેઓ ને ચાર પુત્ર થયા અને
બાદમાં પાંચમી પુત્રી નો જન્મ થયો.
આ વખતે પતિએ ભવ્ય પાર્ટીનું આયોજન કર્યું.
તે રાત્રે પત્નીએ પતિને પૂછ્યું કે
પેહલા ચારમાં નહી ને હમણાં કેમ?
પતિએ હસીને જવાબ આપ્યો કે, આ એ પરી છે કે
જયારે પણ હું તેના દરવાજે જઈ ને ઉભો રહીશ
તો મારી દીકરી મારા માટે દરવાજો ખોલશે !
દીકરીઓ હમેશા સ્પેશીયલ હોય છે. એટલે જ
તો "દીકરી વ્હાલનો દરિયો"
Wednesday, November 6, 2013
अपील का जादू
एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गये कि चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गयी हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे।
उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा—आप लोगों को कीमतों की पड़ी है ! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूं। जैसे गोबर गैस ‘वैसे गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जायेगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता खत्म कर दी है।
प्रधानमंत्री ने कहा—मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है,, यहां हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फिट कर दूंगा। मैं सर्जरी भी जानता हूं।
रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी-व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत गरीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए।
अपील से जादू हो गया।
व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। कीमतें एकदम घटा दी गयी हैं।
जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे-नैतिकता ! मानवीयता !
गल्ले की दुकान पर तख्ती लगी थी—गेहूं सौ रुपये क्विंटल ! ग्राहक ने आंखें मल, फिर पढ़ा। फिर आंखें मलीं फिर पढ़ा। वह आंखें मलता जाता। उसकी आंखें सूज गयीं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है।
उसने दुकानदार से कहा—क्या गेहूं सौ रुपये क्विंटल कर दिया ? परसों तक दो सौ रुपये था।
सेठ ने कहा—हां, अब सौ रुपये के भाव देंगे।
ग्राहक ने कहा—ऐसा गजब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे।
सेठ ने कहा—चाहे जो हो जाये, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूंगा, पर कीमत नहीं बढ़ाऊंगा। नैतिकता, मानवीयता का तकाजा है।
ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा—सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूं, सौ के भाव से ले जाऊंगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिये और गेहूं चुरा कर लाया हूं।
सेठ ने कहा—मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊंगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो।
दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा—ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिये जाओगे।
सेठ ने जवाब दिया—मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूं। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊंगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज है।
सेठ ने कहा—तू इतना डरता क्यों है ?
गरीब ने कहा—तुम मुझे दबोच जो रहे हो ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?
सेठ ने कहा—अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूं। प्रधान मंत्री ने मानवीयता की अपील की है न !
उधर से सेठ चिल्लाया—मैं नैतिकता में विश्वास करता हूं। चाय खुली बेचूंगा और सस्ती बेचूंगा। कालाबाजार बंद हो गया है।
एक मध्यमवर्गीय आदमी बाजार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा—सेठजी, इस तरह बाजार से बेइज्जत क्यों करते हो ! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख को आपकी उधारी चुका दूंगा।
सेठ ने कहा—अरे भैया, पैसे कौन मांगता है ? जब मर्जी हो, दे देना।
चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपये किलो।
"माटी कहे कुम्हार से"
हरिशंकर परसाई
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
आईएसबीएन : 81-7055-675
प्रकाशित : मार्च ०३, २००१
पुस्तक क्रं : 2902
जिसके हम मामा हैं
‘‘मामाजी ! मामाजी !’’—लड़के ने लपक कर चरण छूए।
वे पहताने नहीं। बोले—‘‘तुम कौन ?’’
‘‘मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे ?’’
‘‘मुन्ना ?’’ वे सोचने लगे।
‘‘हाँ, मुन्ना। भूल गये आप मामाजी ! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गये।’’
‘‘तुम यहां कैसे ?’’
‘‘मैं आजकल यहीं हूँ।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘हां।’’
मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर। फिर पहुँचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।
‘‘मुन्ना, नहा लें ?’’
‘‘जरूर नहाइए मामाजी ! बनारस आये हैं और नहाएंगे नहीं, यह कैसे हो सकता है ?’’
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।
बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब ! लड़का...मुन्ना भी गायब !
‘‘मुन्ना...ए मुन्ना !’’
मगर मुन्ना वहां हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
‘‘क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है ?’’
‘‘कौन मुन्ना ?’’
‘‘वही जिसके हम मामा हैं।’’
‘‘मैं समझा नहीं।’’
‘‘अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना।’’
वे तौलिया लपेटे यहां से वहां दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।
भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो ! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना ? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं—क्यों साहब, वह कहीं आपको नज़र आया ? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।
शरद जोशीप्रकाशक: राजपाल एंड सन्स
आईएसबीएन: 81-7028-227-6
काशित: जनवरी ०१, २०१०
पुस्तक क्रं:6758
Tuesday, November 5, 2013
कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै
जीवन का सत्य स्वप्रमाण है। इसकी बुनियाद सूक्ष्म से सूक्ष्मतर के अन्वेषण पर आधारित है। जो सदियों से हमारे ऋषियों-मुनियों तथा संतों की आत्म-अभिव्यक्ति रही है। इसका अन्वेषित प्रारूप समय-समय पर मानव समाज को एक आयाम प्रदान करता रहा है।
‘‘आदर्श कर्म करते हुए ‘स्व’ का अनुभव हो जाना, स्वाभाविकता, समता एवं शांति में जीना ही श्रेष्ठ संन्यास है।’’
चलिए, कबीर के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं:
1. कबीर की रहस्यवादी कविता:
कबीर की रचनाओं की खासियत है सरल भाषा में गहन अर्थ छिपा होना। वह आध्यात्मिक सत्यों को ऐसे बोलते हैं जिन्हें आम आदमी भी समझ सके। उनकी कविताओं में प्रतीकों और रूपकों का खूब इस्तेमाल हुआ है।
उदाहरण के लिए, उनकी एक प्रसिद्ध कविता है:
"बुलीं चलीं हंस के पीछे, कबूतर देखीं हंस न देखी।।"
इस कविता में हंस ईश्वर का प्रतीक है और कबूतर सांसारिक सुखों का। कवि कहता है कि लोग अक्सर चमकती चीजों (कबूतर) के पीछे भागते हैं और असली लक्ष्य (हंस) को भूल जाते हैं।
आप कबीर की रचनाओं में से कोई और कविता चुन सकते हैं और हम उसके अर्थ पर चर्चा कर सकते हैं।
2. कबीर का सामाजिक सुधार:
कबीर अपने समय की सामाजिक बुराइयों के खिलाफ खड़े हुए। उन्होंने जाति व्यवस्था का विरोध किया और कहा कि ईश्वर के सामने सब समान हैं। उनके लिए ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता प्रेम और भक्ति था, न कि जाति या कर्मकांड।
उन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों की रूढ़ियों की आलोचना की। उनका मानना था कि सच्चा धर्म सार्वभौमिक है, किसी खास धार्मिक ग्रंथ या परंपरा तक सीमित नहीं।
आज के समय में भी कबीर के विचार प्रासंगिक हैं। जाति प्रथा और धार्मिक कट्टरता जैसी समस्याएं आज भी समाज में मौजूद हैं। कबीर हमें सिखाते हैं कि प्रेम और भाईचारे से ही हम एक बेहतर समाज बना सकते हैं।
3. कबीर की जीवन कहानी:
कबीर का जीवन विवादों और रहस्यों से भरा हुआ है। उनके जन्म और पालन-पोषण के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहे के घर हुआ, जबकि कुछ का मानना है कि उन्हें एक हिंदू दंपत्ति ने गोद लिया था।
कबीर के कई गुरु भी थे, जिनमें हिंदू और मुस्लिम संत दोनों शामिल थे। उन्होंने दोनों धर्मों के सार को ग्रहण किया और अपनी अनूठी आध्यात्मिक परंपरा विकसित की।
कबीर के जीवन की कहानियां हमें उनकी उदारता और सहिष्णुता की सीख देती हैं। ये कहानियां इस बात का भी सबूत हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान किसी एक धर्म या परंपरा की सीमा में नहीं बंधा होता।
योगसूत्र
शास्त्र में प्रकृति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व माने गये हैं; उनमें प्रकृति तो जड़ और परिणामशील है अर्थात् निरन्तर परिवर्तन होना उसका धर्म है तथा मुक्तपुरुष और ईश्वर-ये दोनों नित्य, चेतन, स्वप्रकाश, असंग, देशकालातीत, सर्वथा निर्विकार और अपरिणामी हैं। प्रकृति में बँधा हुआ पुरुष अल्पज्ञ, सुख-दुःख का भोक्ता, अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने वाला और देशकालातीत होते हुए भी एकदेशीय सा माना गया है।
योग का अर्थ है ‘मिलना’, ‘जुड़ना’, ‘संयुक्त होना’ आदि। जिस विधि से साधक अपने प्रकृति जन्य विकारों को त्याग कर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता है वही ‘योग’ है। यह आत्मा ही उसका निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है। अन्य सभी स्वरूप प्रकृति जन्य हैं जो अज्ञानवश अपने ज्ञान होते हैं। इन मुखौटों को उतारकर अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाना ही योग है। यही उसकी ‘कैवल्यावस्था’ तथा ‘मोक्ष’ है। योग की अनेक विधियाँ हैं। कोई किसी का भी अवलम्बन करे अन्तिम परिणाम वही होगा। विधियों की भिन्नता के आधार पर योग के भी अनेक नाम हो गये हैं जैसे-राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, संन्यासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, लययोग, बिन्दुयोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि किन्तु सबका एक ही ध्येय है उस पुरुष (आत्मा) के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करना। महर्षि पतंजलि का यह योग दर्शन इन सब में श्रेष्ठ एवं ज्ञानोपलब्धि का विधिवत् मार्ग बताता है जो शरीर, इन्द्रियों तथा मन को पूर्ण अनुशासित करके चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है। पतंजलि चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही ‘योग’ कहते हैं क्योंकि इनके पूर्ण निरोध से आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है।...
सपने और भ्रांतियां
और इसके लिए मन को गहराई से समझना होगा–उस मन को जिसे झूठ की जरूरत है, जिसे भ्रांतियां चाहिए; उस मन को जो सत्य के साथ नहीं जी सकता; मन जिसे सपनों की बड़ी जरूरत है।
Wednesday, October 30, 2013
પ્રેમ
Thursday, October 10, 2013
झीनी रे झीनी रे झीनी चदरिया - Kabir
के राम नाम रस भीनी चदरिया,
झीनी रे झीनी रे झीनी चदरिया
पांच तत्व, गुण तीनि चदरिया
साइँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक-ठोंक के बीनी चदरिया
ओढ़ी के मैली कीनी चदरिया
दास कबीर जतन सो ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धर दीन चदरिया
Friday, October 4, 2013
नियती - स्वीकार या संघर्ष
सूर्योदय मैं सृष्टि जागती है. हमारा शरीर जागता है. तब किसी व्रक्ष के नीचे मौन, निश्चिन्त्र्या बैठ जाओ और भीतर उर्जा के तेज प्रवाह को अनुभव करो. साक्षी बनो. मैं हे प्रसन्नता का मूल उदगम हू. ये अनुभव होगा. याने अहंकार विसरजित, इचछा रहित, सहज स्वभाव मैं एक सामग्रा स्वीकृति.
प्राप्त परिस्थिति मेरी नियती है. मैने माँग कर ली है. दो बाते मैं कर सकता हूँ - सहज स्वीकार या फिर संघर्ष. समग्रता से अस्तित्वा गत सामग्रा स्वीकार करे तो व्यथा ही तिरोहित हो जाती है. - ये जीवन का गूढतम रहस्या है. संघर्ष मैं अपनी उर्जा व्यय होगे. योद्धा नही सहज ध्यानी बनो.
वर्तमान नर्क का निर्माण मैने स्वयं किया है, तो उसे स्वर्ग भी मैं ही बना सकता हूँ. समरपार्ण तरीका है, विजय का.
नही कहना भी सूक्ष्म हिंसा है, अतः सकारात्मक भाव - भंगिमा से मना करो.
हाँ मैं सुद्धता + सुंदरता भीतर अवतरित होती अनुभव होगी.