सांस विचार है, सांस बंद तो विचार बंद. हर छोटी छोटी आदत व विचार को विधेयक बनाओ तो अकल्पनीय सुधार अनुभव होंगे. तब अचेतन भी सुधरेगा. हर आदत धीरे धीरे अचेतन का हिस्सा बन जाती है. प्रभु को आगे रखो. साक्षी बनो. गहरा सोचकर निर्णय करने से भीतर द्रढ आस्था बन जाती है. श्रद्धा - प्रेम - आनंद - गुणात्मक - भावत्मक विचार से निर्णय कर फिर ज़िंदगी भर करते जाओ. करुणा गंगा है, श्रद्धा उल्टी गंगा है. श्रद्धा हो तो करुणा स्वतः बहेगी. मौन व अनासकती को साधो और सहज अंग बना लो. उर्जा तटस्थ है. क्रोध का दामन ना करो, करुणा मैं बदल दो. विपरीत करो, दामन ना करो. कुविचार की भंवर बंद करो. साक्षी बनो. वर्तमान को आनंदपूर्ण बनाओ. भीतर आनंद है, तो बाहरी सुखो की नही पड़ी होती. यही वैराग्य है.
सूर्योदय मैं सृष्टि जागती है. हमारा शरीर जागता है. तब किसी व्रक्ष के नीचे मौन, निश्चिन्त्र्या बैठ जाओ और भीतर उर्जा के तेज प्रवाह को अनुभव करो. साक्षी बनो. मैं हे प्रसन्नता का मूल उदगम हू. ये अनुभव होगा. याने अहंकार विसरजित, इचछा रहित, सहज स्वभाव मैं एक सामग्रा स्वीकृति.
प्राप्त परिस्थिति मेरी नियती है. मैने माँग कर ली है. दो बाते मैं कर सकता हूँ - सहज स्वीकार या फिर संघर्ष. समग्रता से अस्तित्वा गत सामग्रा स्वीकार करे तो व्यथा ही तिरोहित हो जाती है. - ये जीवन का गूढतम रहस्या है. संघर्ष मैं अपनी उर्जा व्यय होगे. योद्धा नही सहज ध्यानी बनो.
वर्तमान नर्क का निर्माण मैने स्वयं किया है, तो उसे स्वर्ग भी मैं ही बना सकता हूँ. समरपार्ण तरीका है, विजय का.
नही कहना भी सूक्ष्म हिंसा है, अतः सकारात्मक भाव - भंगिमा से मना करो.
साधक को हाँ के सुवास मैं जीना होता है. आस्थावन हाँ ही कहेगा. जीवन मैं हाँ, शरीर मैं हाँ. मान मैं हैं. प्रत्येक को हाँ, संपूर्ण अस्तित्व को हाँ बिना शर्त के. तब परम खिलवट होती है. अस्तित्वा शुद्ध होता है. अहंकार सुक्षम विध्वंस हैं और अस्मिता अहंकार विहीन है.
हाँ मैं सुद्धता + सुंदरता भीतर अवतरित होती अनुभव होगी.