Wednesday, November 6, 2013

अपील का जादू

एक देश है ! गणतंत्र है ! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूंक, टोना-टोटका से हल किया जाता है ! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-कांटे में कुछ गड़बड़ आ गयी है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतंत्र ठीक चलने लगता है।

सारी समस्याएं मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया—हिन्दू-मुस्लिम, भाई-भाई !

एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गये कि चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गयी हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे।
उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा—आप लोगों को कीमतों की पड़ी है ! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूं। जैसे गोबर गैस ‘वैसे गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जायेगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता खत्म कर दी है।
एक मुंहफट आदमी ने कहा—इन तीस में से बाइस साल आप भी कांग्रेस के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं, तो तीन-चौथाई नैतिकता तो आपने ही खत्म की होगी !
प्रधान मन्त्री ने गुस्से से कहा-बको मत, तुम कीमतें घटवाने आए हो न ! मैं व्यापारियों से अपील कर दूंगा।
एक ने कहा—साहब, कुछ प्रशासकीय कदम नहीं उठायेंगे ?
दूसरे ने कहा-साहब, कुछ अर्थशास्त्र के भी नियम होते हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा—मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है,, यहां हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फिट कर दूंगा। मैं सर्जरी भी जानता हूं।
रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी-व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत गरीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए।
अपील से जादू हो गया।
दूसरे दिन शहर के बड़े बाजार में बड़े-बड़े बैनर लगे थे-
व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। कीमतें एकदम घटा दी गयी हैं।
जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे-नैतिकता ! मानवीयता !

गल्ले की दुकान पर तख्ती लगी थी—गेहूं सौ रुपये क्विंटल ! ग्राहक ने आंखें मल, फिर पढ़ा। फिर आंखें मलीं फिर पढ़ा। वह आंखें मलता जाता। उसकी आंखें सूज गयीं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है।
उसने दुकानदार से कहा—क्या गेहूं सौ रुपये क्विंटल कर दिया ? परसों तक दो सौ रुपये था।
सेठ ने कहा—हां, अब सौ रुपये के भाव देंगे।
ग्राहक ने कहा—ऐसा गजब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे।
सेठ ने कहा—चाहे जो हो जाये, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूंगा, पर कीमत नहीं बढ़ाऊंगा। नैतिकता, मानवीयता का तकाजा है।
ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा—सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूं, सौ के भाव से ले जाऊंगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिये और गेहूं चुरा कर लाया हूं।
सेठ ने कहा—मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊंगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो।
दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा—ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिये जाओगे।
सेठ ने जवाब दिया—मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूं। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊंगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज है।
एक गरीब आदमी झोला लिये दुकान के सामने खड़ा था। दुकानदार आया और उसे गले लगाने लगा। गरीब आदमी डर से चिल्लाया-अरे, मार डाला ! बचाओ ! बचाओ !
सेठ ने कहा—तू इतना डरता क्यों है ?
गरीब ने कहा—तुम मुझे दबोच जो रहे हो ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?
सेठ ने कहा—अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूं। प्रधान मंत्री ने मानवीयता की अपील की है न !
एक दुकान पर ढेर सारे चाय के पैकेट रखे थे। दुकान के सामने लगी भीड़ चिल्ला रही थी—चाय को छिपाओ। हमें इतनी खुली चाय देखने की आदत नहीं है। हमारी आंखें खराब हो जाएंगे।
उधर से सेठ चिल्लाया—मैं नैतिकता में विश्वास करता हूं। चाय खुली बेचूंगा और सस्ती बेचूंगा। कालाबाजार बंद हो गया है।

एक मध्यमवर्गीय आदमी बाजार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा—सेठजी, इस तरह बाजार से बेइज्जत क्यों करते हो ! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख को आपकी उधारी चुका दूंगा।
सेठ ने कहा—अरे भैया, पैसे कौन मांगता है ? जब मर्जी हो, दे देना।
चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपये किलो।


"माटी कहे कुम्हार से"
हरिशंकर परसाई
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
आईएसबीएन : 81-7055-675
प्रकाशित : मार्च ०३, २००१
पुस्तक क्रं : 2902

जिसके हम मामा हैं

एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आता।
‘‘मामाजी ! मामाजी !’’—लड़के ने लपक कर चरण छूए।
वे पहताने नहीं। बोले—‘‘तुम कौन ?’’
‘‘मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे ?’’

‘‘मुन्ना ?’’ वे सोचने लगे।
‘‘हाँ, मुन्ना। भूल गये आप मामाजी ! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गये।’’
‘‘तुम यहां कैसे ?’’

‘‘मैं आजकल यहीं हूँ।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘हां।’’
मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर। फिर पहुँचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।

‘‘मुन्ना, नहा लें ?’’
‘‘जरूर नहाइए मामाजी ! बनारस आये हैं और नहाएंगे नहीं, यह कैसे हो सकता है ?’’
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।

बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब ! लड़का...मुन्ना भी गायब !
‘‘मुन्ना...ए मुन्ना !’’
मगर मुन्ना वहां हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
‘‘क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है ?’’

‘‘कौन मुन्ना ?’’
‘‘वही जिसके हम मामा हैं।’’
‘‘मैं समझा नहीं।’’
‘‘अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना।’’
वे तौलिया लपेटे यहां से वहां दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।

भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो ! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना ? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।

समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं—क्यों साहब, वह कहीं आपको नज़र आया ? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।

"जादू की सरकार"
शरद जोशीप्रकाशक: राजपाल एंड सन्स
आईएसबीएन: 81-7028-227-6
काशित: जनवरी ०१, २०१०
पुस्तक क्रं:6758

Tuesday, November 5, 2013

कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै

कबीर कपड़ा बुनकर बाजार में बेचते रहे। घर छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं गए। हिमालय भी इंतज़ार करता रह गया। कबीर ने उद्घोषित किया था कि परमात्मा यहीं चलकर स्वयं आएगा। कुछ भी छोड़ने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकता। छोड़ना अहंकार हो सकता है, आभूषण हो सकता है, लेकिन आत्मा का सौन्दर्य नहीं हो सकता। अगर कबीर जैसा आदमी, अति साधारण जुलाहा अपना काम करते हुए परमज्ञान को उपलब्ध हो सकता है तो दूसरे क्यों नहीं ? कबीर के पास सबके लिए एक आशा की ज्योति है। पूर्णत्व को पाने का संदेश है।

जीवन का सत्य स्वप्रमाण है। इसकी बुनियाद सूक्ष्म से सूक्ष्मतर के अन्वेषण पर आधारित है। जो सदियों से हमारे ऋषियों-मुनियों तथा संतों की आत्म-अभिव्यक्ति रही है। इसका अन्वेषित प्रारूप समय-समय पर मानव समाज को एक आयाम प्रदान करता रहा है।

कबीरदास के अनुसार जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, ईश्वर से प्रेम करता है और विषयों से असंपृक्त रहता है, वही संत है।
निरबैरी निहकामना, साई सेतीनेह।
विषया सूं न्यारा रहै, संतन के अंग एह।।

आज की संत परम्परा बदसूरत हो गई है। साधारण लोग साधु का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। कमजोर, आलसी, निठल्ला तथा घोटालों एवं घपलों में अफसरों, नेताओं का साथ देने वाला, साधु का चोला पहनकर घूम रहा है। परन्तु हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इसका सर्वथा त्याग किया है। इसी परम्परा के अंतर्गत ही अभी जनक, कबीर, गुलाल, रैदास का नाम आता है। ये स्वयं कर्मशील रहे तथा इनकी दृष्टि खोजी रही। परिवार के साथ रहते हुए उद्यम करते हुए चिंतन में गहराई से उतरे तथा समाज को निष्काम कर्म योग का पाठ पढ़ाया।

‘‘आदर्श कर्म करते हुए ‘स्व’ का अनुभव हो जाना, स्वाभाविकता, समता एवं शांति में जीना ही श्रेष्ठ संन्यास है।’’

‘‘ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।’’



योगसूत्र

कोई भी सच्चा सम्बन्ध सजातीय तत्त्व से ही हो सकता है, विजातीय से नहीं। ईश्वर का सजातीय तत्त्व आत्मा ही है। अतः उसी से उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है, अन्य जड़ तत्त्वों से नहीं।

शास्त्र में प्रकृति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व माने गये हैं; उनमें प्रकृति तो जड़ और परिणामशील है अर्थात् निरन्तर परिवर्तन होना उसका धर्म है तथा मुक्तपुरुष और ईश्वर-ये दोनों नित्य, चेतन, स्वप्रकाश, असंग, देशकालातीत, सर्वथा निर्विकार और अपरिणामी हैं। प्रकृति में बँधा हुआ पुरुष अल्पज्ञ, सुख-दुःख का भोक्ता, अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने वाला और देशकालातीत होते हुए भी एकदेशीय सा माना गया है।

योग का अर्थ है ‘मिलना’, ‘जुड़ना’, ‘संयुक्त होना’ आदि। जिस विधि से साधक अपने प्रकृति जन्य विकारों को त्याग कर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता है वही ‘योग’ है। यह आत्मा ही उसका निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है। अन्य सभी स्वरूप प्रकृति जन्य हैं जो अज्ञानवश अपने ज्ञान होते हैं। इन मुखौटों को उतारकर अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाना ही योग है। यही उसकी ‘कैवल्यावस्था’ तथा ‘मोक्ष’ है। योग की अनेक विधियाँ हैं। कोई किसी का भी अवलम्बन करे अन्तिम परिणाम वही होगा। विधियों की भिन्नता के आधार पर योग के भी अनेक नाम हो गये हैं जैसे-राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, संन्यासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, लययोग, बिन्दुयोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि किन्तु सबका एक ही ध्येय है उस पुरुष (आत्मा) के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करना। महर्षि पतंजलि का यह योग दर्शन इन सब में श्रेष्ठ एवं ज्ञानोपलब्धि का विधिवत् मार्ग बताता है जो शरीर, इन्द्रियों तथा मन को पूर्ण अनुशासित करके चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है। पतंजलि चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही ‘योग’ कहते हैं क्योंकि इनके पूर्ण निरोध से आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है।...

सपने और भ्रांतियां

हम एक गहरी भ्रांति में जीते हैं–आशा की भ्रांति में, किसी आने वाले कल की, भविष्य की भ्रांति में। जैसा आदमी है, वह आत्म-वंचनाओं के बिना जी नहीं सकता। नीत्से ने एक जगह कहा है कि आदमी सत्य के साथ नहीं जी सकता; उसे चाहिए सपने, भ्रांतियां; उसे कई तरह के झूठ चाहिए जीने के लिए। और नीत्से ने जो यह कहा है, वह सच है। जैसा मनुष्य है, वह सत्य के साथ नहीं जी सकता। इस बात को बहुत गहरे में समझने की जरूरत है, क्योंकि इसे समझे बिना उस अन्वेषण में नहीं उतरा जा सकता जिसे योग कहते हैं।

और इसके लिए मन को गहराई से समझना होगा–उस मन को जिसे झूठ की जरूरत है, जिसे भ्रांतियां चाहिए; उस मन को जो सत्य के साथ नहीं जी सकता; मन जिसे सपनों की बड़ी जरूरत है।

Wednesday, October 30, 2013

પ્રેમ

પ્રેમ આપવો હોય તો આપો
બાકી ઉપકાર નથી જોઈતો,

દિલથી આપો એટલે બહુ થઇ ગયું
લેખિત કરાર નથી જોઈતો.

જીવન બહુ સરળ જોઈએ
મોટો કારભાર નથી જોઈતો

કોઈ અમને સમજે એટલે બસ
કોઈ ખોટો પ્રચાર નથી જોઈતો.

માણસમાં માનીએ છીએ
કોઈ ભગવાન નથી જોઈતો,

એકાદ પ્રેમાળ માણસ પણ ચાલે
આખો પરિવાર નથી જોઈતો.

નાનું અમથું ઘર ચાલે
બહુ મોટો વિસ્તાર નથી જોઈતો,

ચોખ્ખા દિલનો કોઈ ગરીબ ચાલે
લુચ્ચો માલદાર નથી જોઈતો.

મ્હો પર બોલતો મિત્ર ચાલે
પાછળથી ચુગલી કરનાર નથી જોઈતો,

ચાર પાચ આત્મીય દોસ્ત ચાલે
આખો દરબાર નથી જોઈતો.

રોગ ભરેલું શરીર ચાલે
મનનો કોઈ વિકાર નથી જોઈતો

જે કહેવું હોય એ સ્પષ્ટ કહો
એકેય શબ્દ અધ્યાહાર નથી જોઈતો.

-અજ્ઞાત

Thursday, October 10, 2013

झीनी रे झीनी रे झीनी चदरिया - Kabir

झीनी रे झीनी रे झीनी चदरिया,
झीनी रे झीनी रे झीनी चदरिया
के राम नाम रस भीनी चदरिया,
झीनी रे झीनी रे झीनी चदरिया

अष्ट कमल दल चरखा डोले,
पांच तत्व, गुण तीनि चदरिया
साइँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक-ठोंक के बीनी चदरिया

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ी के मैली कीनी चदरिया
दास कबीर जतन सो ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धर दीन चदरिया

Friday, October 4, 2013

नियती - स्वीकार या संघर्ष

सांस विचार है, सांस बंद तो विचार बंद. हर छोटी छोटी आदत व विचार को विधेयक बनाओ तो अकल्पनीय सुधार अनुभव होंगे. तब अचेतन भी सुधरेगा. हर आदत धीरे धीरे अचेतन का हिस्सा बन जाती है. प्रभु को आगे रखो. साक्षी बनो. गहरा सोचकर निर्णय करने से भीतर द्रढ आस्था बन जाती है. श्रद्धा - प्रेम - आनंद - गुणात्मक - भावत्मक विचार से निर्णय कर फिर ज़िंदगी भर करते जाओ.  करुणा गंगा है, श्रद्धा उल्टी गंगा है. श्रद्धा हो तो करुणा स्वतः बहेगी. मौन व अनासकती को साधो और सहज अंग बना लो.  उर्जा तटस्थ है. क्रोध का दामन ना करो, करुणा मैं बदल दो. विपरीत करो, दामन ना करो. कुविचार की भंवर बंद करो. साक्षी बनो. वर्तमान को आनंदपूर्ण बनाओ. भीतर आनंद है, तो बाहरी सुखो की नही पड़ी होती. यही वैराग्य है.

सूर्योदय मैं सृष्टि जागती है. हमारा शरीर जागता है. तब किसी व्रक्ष के नीचे मौन, निश्चिन्त्र्या बैठ जाओ और भीतर उर्जा के तेज प्रवाह को अनुभव करो. साक्षी बनो. मैं हे प्रसन्नता का मूल उदगम हू. ये अनुभव होगा. याने अहंकार विसरजित, इचछा रहित, सहज स्वभाव मैं एक सामग्रा स्वीकृति.

प्राप्त परिस्थिति मेरी नियती है. मैने माँग कर ली है. दो बाते मैं कर सकता हूँ - सहज स्वीकार या फिर संघर्ष. समग्रता से अस्तित्वा गत सामग्रा स्वीकार करे तो व्यथा ही तिरोहित हो जाती है. - ये जीवन का गूढतम रहस्या है. संघर्ष मैं अपनी उर्जा व्यय होगे. योद्धा नही सहज ध्यानी बनो.

वर्तमान नर्क का निर्माण मैने स्वयं किया है, तो उसे स्वर्ग भी मैं ही बना सकता हूँ. समरपार्ण तरीका है, विजय का.

नही कहना भी सूक्ष्म हिंसा है, अतः सकारात्मक भाव - भंगिमा से मना करो.

साधक को हाँ के सुवास मैं जीना होता है. आस्थावन हाँ ही कहेगा. जीवन मैं हाँ, शरीर मैं हाँ. मान मैं हैं. प्रत्येक को हाँ, संपूर्ण अस्तित्व को हाँ बिना शर्त के. तब परम खिलवट होती है. अस्तित्वा शुद्ध होता है. अहंकार सुक्षम विध्वंस हैं और अस्मिता अहंकार विहीन है.

हाँ मैं सुद्धता + सुंदरता भीतर अवतरित होती अनुभव होगी.

Tuesday, June 4, 2013

હું હવે થાકી ગયો છું માણસોથી

રાતને દીવસ સતત એ કંઈને કંઈ માગ્યા કરે બંઘ આંખે, 
હાથ જોડે, શીશ ઝુકાવે, ઘુંટણીયાભેર થઈ જઈને પગે લાગ્યા કરે, 
ધુપને દીવા કરે, પુજન કરે, અર્ચન કરે છે ને કથાકીર્તન, હવન–હોળી કરે, 
મારી સર્જેલી બઘી વસ્તુઓથી લલચાવે… 
મને ફળફુલ, નૈવેદ ને શ્રીફળ ધરે… 
માગણીની રોજ માળા ફેરવે, મણકા ગણે ને કોથળીમાં હાથ સંતાડ્યા કરે… 
હું હવે થાકી ગયો છું માણસોથી

આ સકળ બ્રહ્માંડ ચૌદે લોકમાં નીવાસ મારો છે ધરા, પાતાળ ને આકાશમાં… 
તો પણ મને પુરે છે મંદીર – મસ્જીદોની જેલમાં, છું હું ઘણાં યુગોથી કારાવાસમાં, 
હું એક ઉર્જારુપ છું પણ સૌ અલગ નામે, અલગ રુપે હજારો ઘર્મને સ્થાપ્યા કરે 
હું હવે થાકી ગયો છું માણસોથી

માણસો સર્જીને કીઘી ભુલ મેં, આજે જુઓ એ મુર્તીઓ મારી જ સર્જે છે હવે એ ડુબાડે છે, 
વીસર્જન પણ કરે છે, ઉત્સવો નામે સતત ઘોંઘાટ ગર્જે છે 
હવે રોડ પર કાઢીને શોભાયાત્રા, ડીસ્કોને ડીજે. તાલમાં જાહેરમાં નાચ્યા કરે… 
હું હવે થાકી ગયો છું માણસોથી… 

માંગણી છે એડમીશન ને પરીક્ષામાં ટકા ને નોકરી–ઘંઘો… 
સગાઈને સીમંત બંગલોને કાર, સીદ્ઘી–સંપત્તી ને રોગમુક્તી એવી અઢળક માંગણોઓ છે 
અનંત એ મંત્રેલા દોરાઘાગાઓ અને તાવીજ બાંઘી મારી કાયમ માનતા માન્યતા કરે 
હું હવે થાકી ગયો છું માણસોથી…! 

---- Written by "Unknown"

Sunday, June 2, 2013

આરોગ્ય : હેડકી

જયારે આપના કોઈ સ્વજન, પ્રિયજન કે સંબંધી આપણને યાદ કરે ત્યારે હેડકી આવે એવું આપના સમાજમાં હેડકી માટે કહેવાય છે.

હેડકી આવાનું મુખ્ય કારણ છે - તીક્ષ્ણ પદાર્થોનું સેવન, ઉત્તેજક દવા, જરૂરિયાત કરતા વધુ ખાવું, જરીરિયાત કરતા વધારે તીખું ખાવું, મરચા અને મસાલેદાર ખાવાનું,પચવામાં અઘરું હોય તેવું ખાવું, ધૂળ, ધુમાડો, ઉપવાસ વગેરે છે.

ઘણી વખત બાળકો ને પણ હેડકી આવતી હોય છે. તેનું કારણ એ છે કે બાળક ને જયારે દૂધ પીવડાવામાં આવે છે ત્યારે જે ગેસ પેદા થાય છે તે ડાયફ્રેમથી ટકરાઈ ને નસો માં ખેચાણ પેદા કરે છે. બીમારીની દ્રષ્ટિથી તો આ કોઈ બિમારી નથી પણ આ અન્ય કોઈ ગંભીર બીમારી નો સંકેત કરે છે. આથી આનો ઉપચાર જરૂરી છે.

હેડકી દૂર કરવાના ઉપાય
  • જર્મન વિજ્ઞાનીઓ ના માટે જયારે હેડકી આવવાની શરુ થાય ત્યારે થોડી ખંડ ફંકી લેવી.
  • અજમાના દાન મોમાં રાખી ને તેનો રસ ચુસ્વો.
  • નારિયેળ (ટોપરા)ના ચુરા માં ખંડ નાખી ને ખાવું.
  • પીસેલી કાળી મારી અને પીસેલી સાકાર અડધી અડધી માત્રામાં અડધી ચમચી જેટલું લેવું. તેને એક ગ્લાસ પાણી માં ભેળવી ને પીવાથી પણ હેડકીમાં થાય છે.
  • દર કલાક ના અન્તરે એક ચમચી મધ ચાટવાથી પણ હેડકીમાં રાહત થાય છે.
  • પોધીનાના પાંદડા મોમાં રાખી ને ચૂસવાથી અથવા પોધીના સાથે સાકાર ચાવવાથી પણ રાહત થાય છે. 
  • ગાયના દૂધમાં સાકાર ભેળવીને પીવાથી પણ હેડકીમાં રાહત થાય છે.
  • અડધી ચમચી તુલસી નો રસ અને અડધી ચમચી મધ સવાર સાંજ લેવું.

Tuesday, February 19, 2013

નરેન્દ્ર મોદી ભારતના પ્રધાન મંત્રી

નરેન્દ્ર મોદી ભારતના પ્રધાન મંત્રી

- આ વિષય પર અનેક લેખો લખી ગયા છાપામાં, મેગઝીનમાં, કેટલું બધું ચર્ચાય છે TV અને રેડિયામાં। Internet પર ઘણી બધી gigabite bandwidth વપરાઈ છે આ વિષય પર ચર્ચા અને શોધ કરવામાં। ભારતના ઇતિહાસમાં આટલું બધું બીજા કોઈ નેતા માટે નથી થયું।

એક પ્રથા બનવા લાગી છે કે લોકો જયારે સાંભળે કે મોદી પ્રધાન મંત્રી બનશે? તો ઘણા લોકો માથું હલાવી ને હા પડશે અથવા ચર્ચા કરવા લાગશે કે મોદી શા માટે પ્રધાન મંત્રીના બની શકે। આ ઉપરાંત, "chargesheet" અને અનેક ભવિષ્યવાણીઓ।

હકીકત તો એ છે કે મોદી આજે ભાજપના 2014 ની ચુંટણીના પ્રધાન મંત્રી માટેના એક આગળ પડતા ઉમ્મેદવાર છે। હજુ સુધી મોદી ની પ્રધાનમંત્રી માટે ની ઉમ્મેદ્વારીની જાહેરાત ભાજપ અથવા મોદીએ નથી કરી। આ જાહેરાત થઇ જાય પછી મોદીએ જીતવું પડે અને ત્યારે બાદ કેટલી બધી બાબતો છે એ "HOT-SEAT" પર બિરાજમાન થવા માટે।

આમ તો મોદી સાહેબ નો હું ખુબજ મોટો પ્રશંસક છું પણ મને હાલમાં એક જ તકલીફ છે। આ બધું મારા નામ પર થઇ રહ્યું છે - વિકાસ। અને મારે અમદાવાદથી બરોડા જઈને આવા માં 185 KM ના સફર માં 450 થી વધુ નો Toll Tax ચૂકવવો પડે છે। જો તેઓ ભારતના પ્રધાનમંત્રી બની જશે તો શું આખા ભારતમાં વિકાસ થશે? અને જો થશે તો સાહેબ આટલા બધા પૈસા ચુકવવા કઈ રીતે? અને તે પણ જાત જાતના અને ભાત ભાતના કર વેરા ચૂકવ્યા પછી।