Thursday, May 19, 2011

जिंदा रहेंगे

सदमे उठा रहे हैं बहुत जिंदगी से हम,
जीतें हैं आज तक मगर जिंदादिली से हम.

वो कौन सा जहाँ है जहाँ जिंदगी नहीं,
दमन बचा के जाएँ कहाँ जिंदगी से हम.

हमको किसी ने आज तक अपना नहीं कहा,
अपना समझ के मिलते रहे हर किसी से हम.

लाया है हमको जज्बये इंसानियत वहां,
मायूस हो गए हैं जहाँ आदमी से हम.

देता रहा फरेब हमें उम्र भर कोई,
खाते रहे फरेब बड़ी सादगी से हम.

होगी भी या न होगी हमें वो घडी नसीब,
जब कह सकेंगे अपना फ़साना किसी से हम.

खूने जिगर पिला के इसे दी है जिंदगी,
जिंदा रहेंगे "नीर" इसी शायरी से हम.

कवी : धीरेन्द्र मदान "नीर"

यह ग़ज़ल मुझे मेरे दादाजी के पुराने संग्रह मैं से मिली. यह मेरे दादाजी ने अपने जवानी के समय मैं अपने लिए सम्हाल के रखी थी. करीब १० -१२ सालो से यह मेरे पास थी. आज वापस हाथ आई और पढ़ा.

No comments:

Post a Comment