Tuesday, November 25, 2014

दांपत्य जीवन और परिवार

सामाजिक बंधन कितने जल्दी दम तोड़ते जा रहे हैं, कल तक जो वैवाहिक संस्था में बहुत खुश थे रोज ही उनके ठहाकों की आवाजें आती थीं और आज वैवाहिक संस्था को चलाने वाले वही दो कर्णधार अलग अलग नजर आ रहे थे, एक फ़्लैट की आगे गैलरी में और दूसरा फ़्लैट की पीछे गैलरी में ।

उनका पारिवारिक जीवन बहुत ही अच्छा चल रहा था और उनको देखकर हमेशा लगता था कि परस्पर इनका बंधन मजबूत हो रहा है, परंतु कल पता नहीं क्या हुआ, दोनों के बीच इतनी बड़ी दूरी देखकर मन बेहद दुखी हुआ । दोनों विषादित नजर आ रहे थे, मुझे तो दोनों की हालत देखकर ही इतना बुरा लग रहा था और वे दोनों तो इन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, कितना विषाद होगा उनके बीच।

कैसा लगता होगा जब उसी साथी को देखने की इच्छा ना हो जो आपका जीवन साथी हो, जिसको प्यार करते हों और साथ जीने मरने की कसमें खायी हों। यह रिश्तों की डोर कितनी पतली और नाजुक है जिस पर आजकल की पीढ़ी सँभल नहीं पा रही है। जितनी तेजी से सामाजिक परिवेश बदल रहा है उतनी तेजी से युवा पीढ़ी में परिपक्वता नहीं बढ़ रही है। केवल कैरियर में अच्छा करना परिपक्वता की निशानी नहीं होता, सामाजिक और पारिवारिक समन्वयन परिपक्वता की निशानी होता है।

पिछले वर्ष से इस वैवाहिक संस्था को मजबूत होता हुआ उनके बीच देख रहा था परंतु आज उसने मुझे झकझोर दिया, महनगरीय संस्कृति में किसी के मामले में बोलना अनुचित होता है, दूसरी भाषा दूसरी संस्कृति भी कई मायने में दूरियाँ बड़ा देती हैं, परंतु आखिर परिस्थितियाँ तो सबकी एक जैसी होती हैं, और विषाद भी, केवल विषाद के कारण अलग अलग होते हैं।

युवा पीढ़ी जिस तेजी से वैवाहिक संस्था को मजबूत बनाती है, एकल परिवार में वह वैवाहिक संस्था छोटी छोटी बातों पर बहुत कमजोर पड़ने लगती है और कई बार इसके अच्छे परिणाम देखने को नहीं मिले हैं, परंतु अगर वही युवा जोड़े में एक भी परिपक्व होता है तो वह वैवाहिक संस्था हमेशा मजबूती से कायम होती है।

आजकल वैवाहिक संस्था में दरार कई जगह देखी है, परंतु उससे ज्यादा मैंने प्यार, मजबूती और रिश्तों में प्रगाढ़ता देखी है। मेरी शुभकामनाएँ हैं युवा पीढ़ी के लिये, वे परिपक्व हों और वैवाहिक संस्था का महत्व समझकर जीवन का अवमूल्यन ना करें।

पति – पत्नि जीवन रथ के दो पहिये हैं। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रुप से चलाने हेतु दोनों पहियों का ठीक – ठाक रहना बहुत जरुरी है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। पति – पत्नि को आपस में सम्बन्धों को सहज एवं सुलभ बनाने के लिये एक दूसरे की भावनाओं को समुचित आदर देना जरुरी है। यदि पति – पत्नि अग्नि को साक्षी मानकर विवाह के समय की गई अपनी प्रतिज्ञाओं को याद रखें एवं उनका पालन करें तो जीवन में आनन्द ही आनन्द होगा।

पति – पत्नि में आपस में समझबूझ तब और ज्यादा विकसित पाई जाती है जब दोनों जीवन के कठिन मार्ग से साथ में गुजरे हों, फ़िर भले ही वह कुछ भी कठिनता हो चाहे वह पारिवारिक हो या धन की। कठिन समय में एक दूसरे का हौसला बढ़ाकर वे एक दूसरे को बहुत करीब से जानने लगते हैं। कई दंपत्तियों में इस समझबूझ की कमी पाई जाती है क्योंकि उनके पास शुरु से ही सारे सुख होते हैं, जिससे वे एक दूसरे को समझ ही नहीं पाते और हमेशा एक दूसरे से दूरी बनी रहती है।

आज सुबह उठने के बाद मोबाईल में झांका तो पाया एक एस.एम.एस. हमारा इंतजार कर रहा है, जो कि सही मायने में "पत्नि कौन है", "पति कौन है" एक वाक्य में अभिव्यक्ति है।

हमने भी मनन किया, कब ? (आज सुबह घूमते समय आज कान में कानकव्वा न लगाकर सोचने के लिये समय दिया और इसलिये कानकव्वे द्वारा सुनने वाला लेक्चर भी आज मिस हो गया )और पाया कि वाकई बात तो सही है।

"पत्नि कौन है" - पत्नि वो है जो पति को टोक टोक कर उसकी सारी आदतें बदल दे और फ़िर कहे "तुम पहले जैसे नहीं रहे।"

"पति कौन है" - पति वो है जो पत्नि को टोक टोक कर उसकी आदतें बदलना चाहता है और फ़िर कहे "तुम कभी बदल नहीं सकतीं।"

क्या यह एक वाक्य की अभिव्यक्ति सही है!

पति के कर्तव्य : उस माँ की ममता को याद रखना जिसने पाल पोस कर तुम्हें इतना बड़ा किया है ।

पति को पत्नी के सामने कभी भी उसके पीहर वालों की बुराई नहीं करनी चाहिये। यह स्त्री स्वाभाव है कि वह सब कुछ सहन कर सकती है, लेकिन अपने माँ – बाप, भाई – बहन की बुराई नहीं सहन कर सकती। क्या पति अपने परिवार वालों की बुराई सुन सकता है? यदि नहीं तो पत्नी से कैसे अपेक्षा करे कि वह अपने सामने अपने परिवार वालों की बुराई सुन सके। वैसे विवाह के बाद पत्नी अपने पति की बुराई भी नहीं सुन सकती।

पति अगर पत्नी की किसी आवश्यकता को पूरी नहीं कर सकता तो पत्नी को अपनी मजबूरी एवं कारण प्रेमपूर्वक मीठे शब्दों द्वारा समझाना चाहिये। पति को कभी भी अपने पुरुष होने का झूठा अभिमान नहीं करना चाहिये। स्त्री के साथ सब समय सहयोग की भावना रखनी चाहिये एवं उसे अर्धांगिनी का दर्जा देकर सम्मान देना चाहिये।

पत़्नी के कर्तव्य : पति की तरह ही पत़्नी के भी कुछ कर्तव्य होते हैं, जिनका पालन कर गृहस्थाश्रम का पूर्ण आनन्द लिया जा सकता है। किसी ने ठीक कहा है – ईंट और गारे से मकान बनाये जा सकते हैं, घर नहीं। मकान को घर बनाने में गृहिणी का ही पूरा हाथ होता है। वैसे भी इतिहास साक्षी है कि बहुत से महापुरुषों जैसे तुलसीदास, कालिदास, शिवाजी आदि के उत्थान पतन में स्त्री की ही मुख्य भूमिका रही है। मधुर भाषी स्त्री घर को स्वर्ग बना सकती है तो कर्कशा व जिद्दी स्त्री घर को नर्क बना देती है। पत़्नी को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये -

पति के माता – पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों का आदर करे तथा उनकी सुविधा का हमेशा ध्यान रखे।

कभी भी अपने पीहर में ससुराल वालों की निंदा या बुराई न करे।

कभी भी पति पर कटु, तीखे एवं व्यंग्यात्मक शब्दों का प्रयोग न करें। सब समय ध्यान रहे कि तलवार का घाव भर जाता है, बात का नहीं।

पति के सामने कभी भी ऐसी मांग न करे जो पति की सामर्थ्य के बाहर हो।

कभी भी झूठी शान शौकत के चक्कर में पैसे का अपव्यय न करे। पति से सलाह मशविरा करके ही संतुलित एवं आय के अनुसार ही व्यय की व्यवस्था करें। पति के साथ रिश्ते को पैसे का आधार नहीं बनाकर सहयोग की भावना से गृहस्थी चलानी चाहिये।

सर्वोपरि पति – पत़्नी में एक दूसरे के प्रति दृढ़ निष्ठा एवं विश्वास भी होना चाहिये। दोनों का चरित्र संदेह से ऊपर होना चाहिये। कभी – कभी छोटी – छोटी बातें भी वैवाहिक जीवन में आग लगा देती हैं, हरे भरे गृहस्थ जीवन को वीरान बना देती है। आपसी सामंजस्य, एक दूसरे को समझना, किसी के बहकावे में न आना, बल्कि अपनी बुद्धि से काम लेना ही वैवाहिक जीवन को सुन्दर, प्रेममय व महान बनाता है।

सन्तान के कर्तव्य : मातृ देवो भव: ! पितृ देवो भव: ! आचार्य देवो भव: ! अतिथि देवो भव: !

माता पिता, गुरु और अतिथि – संसार में ये चार प्रत्यक्ष देव हैं । इनकी सेवा करनी चाहिये। इनमें भी माता का स्थान पहला, पिता का दूसरा, गुरु का तीसरा और अतिथि का चौथा है। माता – पिता में परमात्मा प्रत्यक्ष स्वरुप है। माता साक्षात लक्ष्मी होती है तो पिता नारायण। जिनको माता पिता में भगवद्भाव नहीं होते उनको मन्दिर या मूर्ति में भी कभी भगवान के दर्श्न नहीं होते।

माता – पिता में भी माँ का दर्जा अधिक ऊँचा है। शास्त्रों में भी माँ का दर्जा पिता से सौ गुणा अधिक ऊँचा बताया गया है। पिता तो धन – सम्पत्ति आदि से पुत्र का पालन पोषण करता है, पर माँ अपना शरीर देकर पुत्र का पालन पोषण करती है। बच्चे को गर्भ में नौ माह तक धारण करती है, जन्म देते समय प्रसव पीड़ा सहती है, अपना दूध पिलाती है एवं अपनी ममता की छाँव में उसका पालन पोषण करती है। ऐसी ममतामयी जननी का ऋण पुत्र नहीं चुका सकता। ऐसे ही पिता बिना कहे ही पुत्र का भरण पोषण का पूरा प्रबन्ध करता है, विद्याध्ययन करवाकर योग्य बनाता है, उसकी जीविका का प्रबन्ध करता है एवं विवाह कराता है। ऐसे पिता से भी उऋण होना बहुत कठिन है। रामायण में कहा गया है - “बड़े भाग मानुष तन पावा”। इस शरीर के मिलने में प्रारब्ध (कर्म) और भगवत़्कृपा तो निमित्त कारण है और माता पिता उपादान कारण हैं। उनके कारण ही हम इस संसार में आते हैं। इसलिये जीते जी उनकी आज्ञा का पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको प्रसन्न रखकर उनका आशीर्वाद लेना और मरने के बाद उनके मोक्ष हेतु पिण्ड दान, श्राद्ध – तर्पण करना आदि पुत्र का विशेष कर्तव्य है। माता पिता की दुआ में दवा से भी हजार गुणा ज्यादा शक्ति होती है।

पुराणों में उल्लेख मिलता है कि जब देवराओं में यह होड़ लगी कि सबसे बड़ा कौन ? जो सबसे बड़ा होगा वही प्रथम पूज्य होगा। तब सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि जो तीनों लोकों का तीन चक्कर लगा कर सबसे पहले आ जायेगा वही प्रथम पूज्य होगा। सभी देवता अपने अपने वाहनों पर चढ़ कर दौड़ पड़े तब गणेश जी बड़े चक्कर में पड़े कि मेरा वाहन चूहा सबसे छोटा है इस पर चढ़कर में कैसे सबसे पहले पहुंच सकता हूँ। अत: उन्होंने समाधिस्थ पिता शंकर के बगल में माँ पार्वती को बैठा दिया तथा स्वयं अपने वाहन पर चढ़ कर दोनों की तीन बार परिक्रमा की । माता पिता की परिक्रमा करते ही तीनों लोकों की परिक्रमा पूरी हो गई और वे प्रथम पूज्य घोषित हुए। आज भी बुद्धि के देवता के रुप में सर्वत्र प्रथम पूज्य हैं।

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